संसद में घमासान: 2025 डेटा संरक्षण और समान नागरिक संहिता विधेयकों पर सरकार और विपक्ष आमने-सामने
17 सितंबर, 2025 को हुआ संसद का मानसून सत्र, विधायी कामकाज से कहीं ज़्यादा राजनीतिक टकराव का अखाड़ा बन गया। केंद्र सरकार ने अपने दो महत्वाकांक्षी विधेयकों—डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2025 और समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक—को पेश किया, जिसके बाद सदन में अभूतपूर्व हंगामा देखने को मिला। यह बहस केवल कानूनी प्रावधानों तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसने देश के सामाजिक, धार्मिक और व्यक्तिगत अधिकारों की स्वतंत्रता पर एक बड़ी राष्ट्रीय बहस को जन्म दे दिया।
विवाद के केंद्र में दो प्रमुख विधेयक
आइए इन दोनों विधेयकों और उन पर हुए विवाद के मुख्य बिंदुओं को विस्तार से समझते हैं:
1. डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2025
यह विधेयक भारत के करोड़ों इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के व्यक्तिगत डेटा को सुरक्षित रखने के लिए एक कानूनी ढांचा बनाने का प्रयास है।
- सरकार का पक्ष: सरकार के अनुसार, यह विधेयक डिजिटल युग की एक अनिवार्य आवश्यकता है।
- नागरिकों का सशक्तीकरण: यह कानून नागरिकों को उनके डेटा पर अधिक नियंत्रण देगा। उन्हें यह जानने का अधिकार होगा कि उनका डेटा कौन, कहाँ और कैसे इस्तेमाल कर रहा है।
- कंपनियों की जवाबदेही: फेसबुक, गूगल जैसी बड़ी टेक कंपनियों को भारतीय उपयोगकर्ताओं के डेटा के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया जाएगा। डेटा लीक होने या दुरुपयोग होने पर उन पर भारी जुर्माने का प्रावधान है।
- राष्ट्रीय सुरक्षा: सरकार का तर्क है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकारी एजेंसियों को कुछ मामलों में छूट देना आवश्यक है।
- विपक्ष की चिंताएँ और आरोप: विपक्ष ने इस विधेयक को “नागरिकों की जासूसी का लाइसेंस” करार दिया है।
- सरकारी एजेंसियों को असीमित छूट: विपक्ष का सबसे बड़ा ऐतराज इस बात पर है कि विधेयक सरकारी एजेंसियों को जाँच के नाम पर किसी भी नागरिक के डेटा तक पहुँचने की खुली छूट देता है। विपक्ष इसे निजता के अधिकार का घोर उल्लंघन मानता है।
- RTI कानून को कमजोर करना: विधेयक के एक प्रावधान से सूचना का अधिकार (RTI) कानून कमजोर हो सकता है, क्योंकि यह व्यक्तिगत जानकारी देने से मना करने का एक नया आधार प्रदान करता है।
- डेटा संरक्षण बोर्ड की स्वतंत्रता: विपक्ष ने प्रस्तावित डेटा संरक्षण बोर्ड की स्वतंत्रता पर भी सवाल उठाए हैं, क्योंकि इसके सदस्यों की नियुक्ति और निष्कासन पूरी तरह से केंद्र सरकार के नियंत्रण में होगा।
2. समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक

यह विधेयक देश के सभी नागरिकों के लिए विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों में एक समान कानून बनाने का प्रस्ताव करता है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों।
- सरकार का पक्ष: सरकार इसे सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम बता रही है।
- लैंगिक समानता: सरकार का तर्क है कि UCC महिलाओं को उनके धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों में मौजूद भेदभावपूर्ण प्रथाओं से मुक्ति दिलाएगा और उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार देगा।
- राष्ट्रीय एकता: “एक देश, एक कानून” के सिद्धांत को बढ़ावा मिलेगा, जिससे देश की एकता और अखंडता मजबूत होगी।
- कानूनी प्रणाली का सरलीकरण: विभिन्न धार्मिक कानूनों के जाल को समाप्त कर यह न्यायिक प्रणाली को सरल और सुसंगत बनाएगा।
- विपक्ष की चिंताएँ और आरोप: विपक्ष और कई अल्पसंख्यक समूहों ने इसे देश की सांस्कृतिक विविधता पर हमला बताया है।
- धार्मिक स्वतंत्रता का हनन: विपक्ष का मुख्य तर्क यह है कि UCC संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत दी गई धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
- बहुसंख्यकवाद थोपने का आरोप: आलोचकों का कहना है कि यह विधेयक देश पर बहुसंख्यक समुदाय की परंपराओं और कानूनों को थोपने का एक प्रयास है।
- आम सहमति का अभाव: विपक्ष का आरोप है कि सरकार इस संवेदनशील मुद्दे पर अल्पसंख्यक समुदायों और अन्य हितधारकों के साथ बिना किसी व्यापक विचार-विमर्श के, इसे जल्दबाजी में ला रही है।
संसद के अंदर का दृश्य
जैसे ही ये विधेयक सदन में पेश किए गए, विपक्ष के सांसद अपनी सीटों से खड़े हो गए और नारेबाजी करने लगे। “तानाशाही नहीं चलेगी,” “कानून वापस लो” जैसे नारों से सदन गूंज उठा। विपक्षी सांसदों ने वेल में आकर विरोध प्रदर्शन किया और कागजात फाड़े। सत्ता पक्ष ने विपक्ष पर चर्चा से भागने और देश के विकास में बाधा डालने का आरोप लगाया। दोनों पक्षों के बीच तीखी बहस और व्यक्तिगत आक्षेपों के कारण सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ी।
विपक्ष की मुख्य मांग थी कि इन दूरगामी प्रभाव वाले विधेयकों को संसद की स्थायी समिति (Parliamentary Standing Committee) के पास भेजा जाए, ताकि इनके हर पहलू पर गहनता से विचार-विमर्श हो सके।
निष्कर्ष: आगे क्या?
यह टकराव भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता को दर्शाता है, जहाँ महत्वपूर्ण कानूनों पर सड़क से लेकर संसद तक तीखी बहस होती है। सरकार अपने बहुमत के दम पर इन विधेयकों को पारित कराने का प्रयास करेगी, जबकि विपक्ष अपनी पूरी ताकत से इसका विरोध करेगा। अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या सरकार विपक्ष की मांगों को मानते हुए इन विधेयकों को समीक्षा के लिए समिति के पास भेजती है, या फिर इन्हें मौजूदा स्वरूप में ही पारित करा लिया जाता है। जो भी हो, इन विधेयकों ने भारत के भविष्य की दिशा को लेकर एक बड़ी बहस छेड़ दी है, जिसका प्रभाव आने वाले कई वर्षों तक महसूस किया जाएगा।
निश्चित रूप से, आइए इस पूरे घटनाक्रम को और भी गहराई और बारीक विवरणों के साथ समझते हैं
संसद की पूरी कहानी: विधेयकों पर महासंग्राम, गूंजते नारे और लोकतंत्र की परीक्षा
17 सितंबर, 2025 का दिन भारतीय संसदीय इतिहास में एक ऐसे दिन के रूप में दर्ज हो गया, जब लोकतंत्र के मंदिर में विचारधाराओं का सबसे बड़ा टकराव देखने को मिला। यह सिर्फ एक सामान्य बहस नहीं थी; यह भारत के भविष्य, नागरिकों के अधिकारों और देश के सामाजिक ताने-बाने को लेकर दो विपरीत दृष्टिकोणों की सीधी टक्कर थी। आइए, इस पूरे घटनाक्रम की परत-दर-परत पड़ताल करते हैं।
पृष्ठभूमि: तनाव पहले से ही चरम पर था
मानसून सत्र की शुरुआत से ही राजनीतिक माहौल गरमाया हुआ था। सरकार ने पहले ही संकेत दे दिया था कि वह अपने कार्यकाल के कुछ सबसे बड़े और विवादास्पद विधेयकों को इस सत्र में पेश करेगी। विपक्ष ने भी कमर कस ली थी और इन विधेयकों का पुरजोर विरोध करने के लिए एक संयुक्त रणनीति तैयार की थी। मीडिया में हफ्तों से इन विधेयकों के संभावित प्रावधानों पर बहस चल रही थी, जिससे आम जनता में भी उत्सुकता और चिंता दोनों का माहौल था।
पहला केंद्र: डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2025
यह विधेयक जितना तकनीकी लगता है, इसका प्रभाव उतना ही व्यक्तिगत है। यह इस बात को परिभाषित करता है कि आपके मोबाइल और इंटरनेट पर मौजूद आपकी निजी जानकारी का सरकार और कंपनियाँ कैसे उपयोग कर सकती हैं।
- कानूनी पृष्ठभूमि: इस विधेयक की जड़ें सुप्रीम कोर्ट के 2017 के ऐतिहासिक (न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ) फैसले में हैं, जिसमें निजता के अधिकार (Right to Privacy) को एक मौलिक अधिकार घोषित किया गया था। सरकार का कहना है कि यह विधेयक उसी फैसले को कानूनी जामा पहनाने के लिए है।
- सरकार का विस्तृत तर्क: आईटी मंत्री ने सदन में विधेयक पेश करते हुए कहा, “यह विधेयक ‘डिजिटल इंडिया’ को सुरक्षा कवच प्रदान करेगा और हर भारतीय नागरिक को ‘डेटा के सच्चे मालिक’ होने का एहसास कराएगा। अब कोई भी कंपनी या संस्था नागरिकों के डेटा का मनमाना उपयोग नहीं कर सकेगी।” सरकार ने इसे नागरिकों के सशक्तीकरण और डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने वाले एक प्रगतिशील कानून के रूप में प्रस्तुत किया।
- विपक्ष का बिंदुवार और तीखा विरोध: विपक्ष ने विधेयक के मसौदे को पूरी तरह से खारिज कर दिया।
- “सरकारी जासूसी का हथियार”: विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता ने आरोप लगाया, “यह डेटा संरक्षण विधेयक नहीं, बल्कि ‘सरकारी डेटा जासूसी विधेयक’ है। इसकी धारा 35 (काल्पनिक) सरकार और उसकी एजेंसियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किसी भी नागरिक की निगरानी करने का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ देती है, जो सीधे तौर पर मौलिक अधिकारों पर हमला है।“
- RTI पर प्रहार: विपक्ष ने तर्क दिया कि यह विधेयक पारदर्शिता को खत्म कर देगा। एक सांसद ने कहा, “एक तरफ आप डिजिटल गवर्नेंस की बात करते हैं, दूसरी तरफ RTI कानून का गला घोंट रहे हैं ताकि कोई भी सरकारी अधिकारी व्यक्तिगत जानकारी का हवाला देकर सूचना देने से इनकार कर सके।“
- डेटा संरक्षण बोर्ड की निष्पक्षता पर सवाल: विपक्ष ने कहा कि प्रस्तावित बोर्ड एक “सरकारी कठपुतली” होगा क्योंकि उसके सभी सदस्यों की नियुक्ति और सेवा शर्तें सरकार ही तय करेगी, जिससे उसकी निष्पक्षता की कोई गारंटी नहीं होगी।
दूसरा केंद्र: समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक
इस विधेयक ने सदन के अंदर और बाहर, दोनों जगह सबसे ज़्यादा भावनात्मक और वैचारिक बहस छेड़ी।
- संवैधानिक पृष्ठभूमि: सरकार ने अपने कदम को संविधान के अनुच्छेद 44 से जोड़ा, जो राज्य के नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा है। इसमें कहा गया है कि “राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।”
- सरकार का भावनात्मक और तार्किक पक्ष: कानून मंत्री ने एक भावुक भाषण में कहा, “क्या एक ही देश में हमारी बेटियों और बहनों के लिए विवाह, तलाक और विरासत के अलग-अलग कानून होने चाहिए? UCC किसी भी धर्म के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह हर भारतीय महिला के सम्मान, समानता और न्याय के अधिकार के लिए है। यह तुष्टिकरण का अंत और सच्चे अर्थों में पंथनिरपेक्षता की शुरुआत है।“
- विपक्ष और सामाजिक संगठनों का संगठित प्रतिरोध: विपक्ष ने इसे सीधे तौर पर देश के संघीय और विविध ढांचे पर हमला बताया।
- “विविधता पर एकरूपता थोपने की साजिश”: विपक्ष के नेता ने कहा, “यह ‘समानता’ के नाम पर ‘एकरूपता’ थोपने की एक खतरनाक साजिश है। भारत की खूबसूरती उसकी विविधता में है। UCC इस विविधता को नष्ट कर देगा और अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा की भावना पैदा करेगा।“
- आम सहमति का पूर्ण अभाव: कई अल्पसंख्यक संगठनों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों ने तर्क दिया कि इतने बड़े सामाजिक बदलाव के लिए पहले जमीनी स्तर पर आम सहमति बनानी चाहिए थी, लेकिन सरकार इसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए जबरन थोप रही है।
सदन के भीतर का आंखों देखा हाल

जैसे ही विधेयक पेश हुए, सदन का माहौल पूरी तरह बदल गया।
- अध्यक्ष की भूमिका: लोकसभा अध्यक्ष बार-बार दोनों पक्षों से शांति की अपील करते रहे। उनकी आवाज “शांत हो जाइए,” “कृपया अपनी सीट पर बैठें,” “सदन की गरिमा बनाए रखें” जैसे वाक्यों के साथ नारों के शोर में दब रही थी।
- नारेबाजी और प्रदर्शन: विपक्षी सांसद हाथों में तख्तियां लिए सदन के वेल (अध्यक्ष के आसन के सामने का स्थान) में जमा हो गए। “संविधान बचाओ, देश बचाओ,” और “तानाशाही नहीं चलेगी” जैसे नारे गूंज रहे थे।
- सत्ता पक्ष का पलटवार: सत्ता पक्ष के सांसद भी अपनी सीटों पर खड़े होकर “मोदी! मोदी!” और “देश के विकास में बाधा डालना बंद करो” जैसे नारे लगाकर विपक्ष का जवाब दे रहे थे।
- कार्यवाही का स्थगन: जब स्थिति अनियंत्रित हो गई और कोई भी चर्चा संभव नहीं दिखी, तो अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही को दिन भर के लिए स्थगित कर दिया।
आगे की जटिल राह और संभावित परिदृश्य
अब इस टकराव के बाद आगे क्या होगा, इसके कई संभावित परिदृश्य हैं:
- समिति को भेजना: विपक्ष की मांग के अनुसार, सरकार दबाव में आकर इन विधेयकों को संसदीय स्थायी समिति को भेज सकती है। यह समिति सभी पक्षों के विशेषज्ञों को बुलाकर विधेयक के हर पहलू की गहन जांच करेगी और अपनी रिपोर्ट देगी। इससे यह मामला कुछ समय के लिए टल जाएगा।
- संख्या बल से पारित कराना: सरकार अपने बहुमत का उपयोग करके, विशेष रूप से लोकसभा में, इन विधेयकों को बिना किसी बड़े बदलाव के पारित करा सकती है। असली परीक्षा राज्यसभा में होगी, जहाँ सरकार को सहयोगी दलों और तटस्थ पार्टियों के समर्थन की आवश्यकता होगी।
- न्यायालय में चुनौती: यह लगभग तय है कि संसद से पारित होने के बाद भी, इन कानूनों की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। अंतिम निर्णय वहीं से होगा कि ये कानून मौलिक अधिकारों के ढांचे का उल्लंघन करते हैं या नहीं।
संक्षेप में, यह केवल दो विधेयकों का मामला नहीं है, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र, सामाजिक संरचना और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के भविष्य को लेकर एक गहरा और दूरगामी संघर्ष है।